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मसूरी विंटर लाइन कार्निवल में माधो सिंह भंडारी की वीर गाथा का किया गया सुंदर मंचन, देर रात तक हाल में डटे रहे श्रोता

Sunil Sonker by Sunil Sonker
January 1, 2023
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मसूरी विंटर लाइन कार्निवल का शुक्रवार की देर रात को समापन हो गया समापन में माधो सिंह भंडारी की वीर गाथा का सुंदर मंचन किया गया जिसमें सभी मौजूद श्रोताओं के मन को मोह लिया। नाटक पर्वतीय नाट्य मंच मुंबई की ओर से आयोजित किया गया नाटक में निर्देशन दिनेश मौर्य ने किया वहीं कोऑर्डिनेट राजेंद्र सिंह रावत द्वारा किया गया। नाटक के कोऑर्डिनेटर राजेंद्र सिंह रावत और मुख्य भूमिका निभाने वाले बलदेव राणा ने बताया कि माधो सिंह भंडारी के नाटय को देखने के लिए टाउन हाल में भारी संख्या में भीड़ उमड़ी है जिसको देखकर वह काफी उत्साहित है उन्होंने कहा कि उनकी टीम के  द्वारा देहरादून में  करीब 15 दिन तक अपने कलाकारों के साथ रिहर्सल की गई थी और आज जब नाटय को प्रस्तुत किया गया तो सभी लोगों ने जमकर आनंद लिया। माधो सिंह भंडारी के नाट्य में मुख्य भूमिका निभाने वाली नेत्री मीनी उनियाल ने कहा कि वह पिछले 22 सालों से उत्तराखंड की लोक संस्कृति के विभिन्न एल्बम और नाटयो में मंचन कर चुकी है और मसूरी में माधो सिंह भंडारी के नाटय में मुख्य भूमिका निभाने पर उनको गर्व महसूस हो रहा है और उनको बहुत अच्छा लगता है कि वर्तमान पीढी भी लोक संस्कृति पर आधारित नाटक देखने की हाल तक पहुचते है।


मसूरी एसडीएम षैलेंद्र सिंह नेगी ने कहा कि पांच दिवसीय कार्निवाल का सफलता पूर्व समापन हो गया है । उन्होंने कहा कि स्थानीय लोगों, सामाजिक संस्थाओं और राजनैतिक लोगों द्वारा कार्निवाल के आयोजन में समर्थन मिला है जिससे कार्निवल काफी सफल रहा है इसमें पारंपरिक लोक संस्कृति के साथ उत्तराखंड के व्यंजनों सीआरपीएफ और आईटीबीपी के जवानों के द्वारा कई कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए जिसने सभी को मन मोह लिया। उन्होंने कहा कि देश विदेश से आने वाले पर्यटको ने भी कार्निवाल कर जमकर लुफ्त उठाया है उन्होंने कहा कि जिलाधिकारी देहरादून सोनिका सिंह के नेतृत्व में कार्निवाल की रूपरेखा तैयार की गई थी जिसका सफलतापूर्वक संपन्न समापन हो गया है । उन्होने कहा कि कार्निवाल के आयोजनों से र्प्यटन उद्योग को काफी लाभ मिलता है।


उत्तराखंड की लोक गाथाओं में कई ‘वीर भड़ों’ (वीर योद्धा) का ज़िक्र है। और इन्ही में से एक वीर भड़ हैं माधो सिंह भण्डारी। माधो सिंह भण्डारी का जन्म मलेथा गाँव में हुआ था जो उत्तराखंड के बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर देवप्रयाग और श्रीनगर के बीच में बसा हुआ ळें पहाड़ की लोक गाथाओं में वीर गढ़वाली योद्धा माधो सिंह भण्डारी का अपना अलग विशेष स्थान है। लगभग 400 साल पहले पहाड़ का सीना चीरकर नदी का पानी ‘कूल’ (सुरंग) बनाकर अपने गाँव मलेथा तक लेकर आने का काम महान योद्धा माधो सिंह भण्डारी ने किया था। माधो सिंह द्वारा बनाई गई ‘कूल’ के जरिए जो पानी आता है, उससे मलेथा गाँव के खेतों में आज भी हरियाली है।


मलेथा गांव के दाईं ओर चंद्रभागा नदी बहती है। बीच में बड़ी चट्टानों और पहाड़ों के कारण चंद्रभागा नदी का पानी गाँव तक लाना मुश्किल था। माधो सिंह भण्डारी ने इसी पहाड़ को खोदकर लम्बी सुरंग बनाई और सुरंग के रास्ते पानी गाँव तक लाने की ठानी। लगभग पाँच सालों की कड़ी मेहनत के बाद माधो सिंह की मेहनत रंग लाई और सुरंग बनकर तैयार हो गई। यह सुरंग अपने आप में इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है।
सोलहवीं सदी में नहर और सुरंग के ज़रिए सिंचाई के लिए पानी खेतों तक पहुँचाना एक दिवास्वप्न जैसी बात थी। माधो सिंह भण्डारी गढ़वाल के महान योद्धा, सेनापति और कुशल इंजीनियर थे और वो गढ़वाल की लोककथाओं का अहम हिस्सा रहे हैं। समय-समय पर उनकी वीरता, त्याग और शौर्य की कहानी पर नाट्य-मंचन भी होते रहते हैं।

राजा महिपती शाह की सेना में सेनाध्यक्ष थे माधो सिंह भण्डारी
माधो सिंह भण्डारी कम उम्र में ही श्रीनगर के शाही दरबार की सेना में भर्ती हो गए और अपनी वीरता और युद्ध कौशल के कारण तत्कालीन राजा महीपति शाह (1631-35) जो कि पँवार वंश के 46वें राजा थे, की सेना के सेनाध्यक्ष के पद पर पहुँच गए। सेनाध्यक्ष के रूप में माधो सिंह दुश्मनों के लिए साक्षात यम के दूत बन गए। माधो सिंह भण्डारी के नेतृत्व में महीपति शाह ने तिब्बत के दावा क्षेत्र से होने वाले लगातार हमलों से राज्य को सुरक्षित करने के साथ ही दावा क्षेत्र और अपने राज्य के बीच सीमा का निर्धारण किया था। इस कारण महीपति शाह ‘गर्भ-भंजक’ नाम से भी जाने जाते थे।
लगातार अपने हमलों से राज्य की नींद उड़ाने वाले तिब्बत के दावा क्षेत्र के दुश्मनों से लड़ाई में विजय हासिल करने के बाद माधो सिंह भंडारी का विवाह उदीना के साथ हुआ। सेना से छुट्टियों के दौरान अपने गाँव जाने पर वहाँ खेती-बाड़ी और उसर भूमि के हालात देखकर माधो सिंह का मन बहुत दुखी हुआ। उन्होंने देखा कि मलेथा गाँव के अलकनंदा और चंद्रभागा नदियों से घिरे होने के बावज़ूद वहाँ सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी। जिस कारण गाँव की खेती सिर्फ़ वर्षा पर निर्भर थी। कभी-कभी नौबत अकाल पड़ने तक की भी आ जाती थी और पानी की कमी के कारण स्थानीय लोगों का खेती करके फ़सल और सब्ज़ी उगाना मुश्किल था। माधो सिंह भण्डारी ने इस समस्या पर विचार किया कि किस प्रकार से गाँव में पानी और सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो सकती है। उन्होंने निश्चय किया कि वो किसी भी तरह से मलेथा गाँव में पानी लेकर आएंगे।
मलेथा गाँव के सबसे नजदीक चंद्रभागा नदी बहती है, लेकिन नदी और गाँव के बीच बहुत बड़े पहाड़ और चट्टानों के कारण यहाँ नदी का पानी पहुँचाना बहुत ही मुश्किल कार्य था। माधो सिंह ने विचार किया की यदि पहाड़ों के बीच से किसी तरह सुरंग बनाई जा सके, तभी पानी को गाँव तक पहुँचाना संभव हो सकेगा। दुरूह कार्य यह था कि कठोर चट्टानों के बीच से लगभग 2 किलोमीटर लम्बी सुरंग किस प्रकार मलेथा तक पहुँचाई जाए। माधो सिंह ने तुरंत ही एक विशेषज्ञों का दल बुलाकर और गाँव के लोगों को साथ लेकर सुरंग बनाने का काम शुरू कर दिया। लगभग पाँच साल तक चले इस हिमालयी परिश्रम के बाद ‘कूल’/’गूल’ (सुरंग) बनकर तैयार हो गई। इसके ऊपर के हिस्से को मजबूत लोहे और कीलों का आवरण दिया गया, जिससे कि भविष्य में आने वाली किसी आपदा और भूस्खलन से इसे सुरक्षित रखा जा सके।
सुरंग के बदले अपने पुत्र का दिया बलिदान
स्थानीय कहानियों के अनुसार माधो सिंह भण्डारी ने अपने पुत्र गजे सिंह का इस सुरंग के लिए बलिदान किया था। लोक कथाओं के अनुसार, जब सुरंग बनकर तैयार हो गई तब नदी के पानी को ‘कूल’ (सुरंग) से गुज़ारने के बहुत प्रयास करने के बावज़ूद भी नदी का पानी ‘कूल’ में नहीं पहुँचाया जा सका। जिससे माधो सिंह के साथ ही सारा गाँव बहुत परेशान हो गया।
एक रात माधोसिंह को स्वप्न आया कि स्वप्न में देवी उनसे अपने एकमात्र पुत्र का बलिदान करने को कह रही है। उन्होंने यह बात अपने गाँव के लोगों से बताई कि उन्हें ‘कूल’ से पानी लाने के लिए अपने एकमात्र बेटे गजे सिंह की बलि देनी होगी। पहले तो माधो सिंह इस विचार के लिए तैयार नहीं हुए, लेकिन बाद में गजे सिंह लोकहित के लिए इस बलिदान के लिए खुद राज़ी हो गए और अपने पिता माधो सिंह से कहा कि अगर ऐसा करने से मलेथा गाँव के लोगों को पानी मिल सकता है और यहाँ की बंज़र भूमि उपजाऊ हो सकती है तो उन्हें यह बलिदान कर लेना चाहिए।
इसके बाद गजे सिंह की बलि दी गई और उनके सिर को ‘कूल’ (सुरंग) के मुँह पर रखा दिया गया। इसके बाद जब नदी के पानी को सुरंग की ओर मोड़कर गुज़ारा गया तो पानी सुरंग से होते हुए गजे सिंह के सिर को अपने साथ बहा कर ले गया और खेतों में स्थापित कर दिया।

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