देशभर में जहां दिवाली पर्व धूमधाम से संपन्न हो चुका है तो वहीं, अब उत्तराखंड में दिवाली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दिवाली के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। यहां पर वैदिक काल से आज भी पुरातन परंपरा का निर्वाह किया जाता है। मसूरी में बग्वाल (बूढ़ी दीपावली) पारंपरिक तरीके से मनाई गई। पारंपरिक वेशभूषा में लोगों ने ढोल-दमाऊ के साथ रासो, तांदी और जैंता नृत्य कर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। कैंपटी रोड जीरो प्वाइंट के निकट अगलाड़-यमुना घाटी विकास मंच की ओर से बग्वाल का आयोजन किया गया। मसूरी में रहने वाले रवांई, जौनपुर और जौनसार के लोगों ने पर्व मनाया। वही बग्लो की कांडी गांव में भी बूढी दिपावली धूमधाम के साथ मनाई गई। स्थानीय निवासी ने कहा कि लोक संस्कृति को जीवंत रखने के लिए रवांई-जौनपुर और जौनसार का बड़ा योगदान है। कहा युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति और जड़ों से हमेशा जुड़ा रहना चाहिए। सबसे पहले डिमसा पूजन, होल्डे दहन किया गया।
होलियात नृत्य, सराय नृत्य, भीरुड़ी अखरोट वितरण, रस्साकशी का आयोजन हुआ। लोक नृत्य देखने के लिए काफी पर्यटक भी पहुंचे। विकास मंच के अध्यक्ष शूरवीर सिंह रावत ने कहा कि युवा पीढ़ी को अपनी संस्कृति से जोड़ों रखने के लिए मंच की ओर से हर साल आयोजन किया जाता है। इस पर्व में लोगों को पुरातन संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। प्रकाशोत्सव के प्रतीक के तौर पर यहां पर मशालें जलाई जाती हैं, पारंपरिक वाद्य यंत्रों की थाप पर लोग झूम उठते हैं।
इस बूढ़ी दीवाली को रामायण और महाभारत से जुड़ाव है। पहले दिन निरमंड में रात भर इस पर्व को मनाते हैं। दूसरे दिन कौरव और पांडव के प्रतीक के तौर पर दो दल रस्साकशी करेंगे। विशेष तौर से बनाई गई मूंजी घास के रस्से से दोनों दल एक-दूसरे के साथ शक्ति प्रदर्शन करेंगे। इसके अलावा रात को एक दल गांव में मशालों के साथ प्रवेश करता है। रात को राज कवि काव्य,रामायण , महाभारत के वीर रस का पान करवाते हैं। बाड़ नृत्य व माला नृत्य के साथ तीन दिनों के बाद निरमंड की बूढ़ी दीवाली का समापन होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार जब वह अपने शिष्यों के साथ भ्रमण कर रहे थे।
उसी दौरान एक दैत्य ने सर्पवेश में भगवान परशुराम और उनके शिष्यों पर आक्रमण कर दिया था। जिस पर भगवान परशुराम ने अपने परसे से उस दैत्य का बध किया था। दैत्य का वध होने पर वहां के लोगों ने जमकर खुशियां मनाई। जिसे आज भी यहां पर बूढ़ी दिवाली वाले दिन मनाया जाता है। इस अवसर पर यहां महाभारत युद्ध के प्रतीक के रूप में युद्ध के दृश्य अभिनीत किए जाते हैं। इस दौरान लोग परोकड़िया गीत, विरह गीत भयूरी, रासा, नाटियां, स्वांग के साथ हुड़क नृत्य करके जश्न मनाते हैं। कुछ गांवों में बूढ़ी दिवाली के त्योहार पर बढ़ेचू नृत्य करने की परंपरा भी है। कई जगहों पर आधी रात को बुड़ियात नृत्य भी किया जाता है। इस दिन लोग एक-दूसरे को सूखे व्यंजन मूड़ा, चिड़वा, शाकुली, अखरोट बांटकर बधाई देते हैं।